भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डीएनए नमूनों पर दिशानिर्देश
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में आपराधिक जांचों में डीएनए नमूनों की शुद्धता बनाए रखने के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी किए हैं। इस कदम का उद्देश्य सभी राज्यों में प्रक्रियाओं को मानकीकृत करना है ताकि फॉरेंसिक जांच में विलंब और संदूषण से बचा जा सके। ये दिशानिर्देश एक ऐसे मामले के बाद बनाए गए, जिसमें गंभीर अपराधों की जांच नमूनों के गलत प्रबंधन से प्रभावित हुई थी।
समान डीएनए नमूना प्रक्रियाओं की आवश्यकता
न्यायालय ने पाया कि योनि स्वैब नमूनों को फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं तक भेजने में देरी और अस्पष्ट अंतराल थे। नमूनों की चेन ऑफ कस्टडी ठीक से नहीं रखी गई थी, जिससे संदूषण का खतरा बढ़ गया। यद्यपि पुलिस और लोक-व्यवस्था राज्य का विषय है, सर्वोच्च न्यायालय ने पूरे भारत में डीएनए साक्ष्य के प्रबंधन हेतु एक समान प्रोटोकॉल तय किया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी मुख्य दिशानिर्देश
चार प्रमुख निर्देश दिए गए-
- डीएनए नमूना संग्रह का विस्तृत दस्तावेजीकरण किया जाए, जिसमें एफआईआर नंबर, संबंधित धाराएँ, और चिकित्सक, जांच अधिकारी व गवाहों के हस्ताक्षर शामिल हों।
- जांच अधिकारी नमूनों को पुलिस थाने या अस्पताल से फॉरेंसिक प्रयोगशाला तक 48 घंटे के भीतर पहुँचाए। यदि देरी हो, तो कारण लिखित रूप में दर्ज किया जाए।
- एक बार संग्रहित किए गए नमूनों को न्यायालय की अनुमति के बिना खोला या परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
- चेन ऑफ कस्टडी रजिस्टर संग्रह से लेकर मुकदमे के समापन तक बनाए रखा जाए और इसे न्यायालय के अभिलेखों से जोड़ा जाए।
न्यायिक टिप्पणियाँ
न्यायालय ने कहा कि डीएनए प्रोफ़ाइल तभी विश्वसनीय मानी जाएगी जब संग्रह, परिवहन और प्रयोगशाला में सभी प्रक्रियाएँ पूरी सावधानी से की जाएँ। पहले कई मामलों में संदूषण या गलत भंडारण के कारण डीएनए साक्ष्य अस्वीकार किया गया है। अदालतों ने यह भी माना है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत डीएनए साक्ष्य मत-साक्ष्य है और इसकी वैधता वैज्ञानिक और प्रक्रियात्मक कठोरता पर निर्भर करती है।
आपराधिक मामलों में डीएनए साक्ष्य
डीएनए में आनुवंशिक जानकारी होती है जिसे रक्त, लार, बाल और अन्य जैविक पदार्थों से निकाला जा सकता है। डीएनए प्रोफ़ाइल का मिलान संदिग्धों को अपराध स्थल से जोड़ सकता है, लेकिन यह अपने आप में निर्णायक प्रमाण नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि डीएनए साक्ष्य तभी स्वीकार्य होगा जब वह वैज्ञानिक रूप से और विधिक रूप से प्रमाणित हो।
जांच एजेंसियों और फॉरेंसिक विशेषज्ञों की भूमिका
जांच अधिकारियों को सुनिश्चित करना होगा कि डीएनए नमूने बिना संदूषण के लिए जाएँ और शीघ्र ही प्रयोगशालाओं तक भेजे जाएँ। फॉरेंसिक विशेषज्ञों को विश्लेषण के दौरान कड़े गुणवत्ता मानकों का पालन करना होगा। न्यायिक प्रक्रिया के दौरान डीएनए साक्ष्य की विश्वसनीयता और अखंडता बनाए रखने की जिम्मेदारी दोनों की साझा है।

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