भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2025 के शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के दुरुपयोग को रोकने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए दिशा-निर्देशों को पुनः पुष्ट किया। इन दिशा-निर्देशों में किसी भी दबावपूर्ण कार्रवाई से पहले दो महीने की “कूलिंग अवधि” तथा शिकायतों को फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजना शामिल है। इस फैसले ने पीड़ितों की न्याय तक समय पर पहुँच और आपराधिक न्याय संस्थाओं की स्वतंत्रता पर बहस को जन्म दिया।
पृष्ठभूमि
धारा 498A को महिलाओं पर पति या उसके परिवार द्वारा की जाने वाली क्रूरता को रोकने के लिए बनाया गया था। इसका उद्देश्य विवाहिक जीवन में महिलाओं को उत्पीड़न और हिंसा से बचाना है। लेकिन, समय के साथ न्यायालयों ने पाया कि इस प्रावधान का झूठे मुकदमों और गलत गिरफ्तारी के लिए बढ़ते हुए दुरुपयोग किया जा रहा है।
दुरुपयोग रोकने के लिए न्यायिक सुरक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने कई सुरक्षा उपाय लागू किए हैं। ललिता कुमारी मामले में विवाहिक विवादों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जाँच को अनिवार्य किया गया। 2008 में दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन में गिरफ्तारी के लिए “आवश्यकता का सिद्धांत” जोड़ा गया। अर्नेश कुमार फैसला (2014) में गिरफ्तारी से पहले चेकलिस्ट और नोटिस की आवश्यकता को लागू किया गया। बाद में सतेंद्र कुमार अंतिल (2022) मामले में गलत गिरफ्तारी के विरुद्ध जमानत सुरक्षा को और मज़बूत किया गया।
गिरफ्तारी और अपराध के आँकड़े
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, धारा 498A के तहत अपराध 2015 में 1,13,403 से बढ़कर 2022 में 1,40,019 हो गए। जबकि इसी अवधि में गिरफ्तारियों की संख्या 1,87,067 से घटकर 1,45,095 रह गई। यह दर्शाता है कि न्यायिक और विधायी उपायों ने मनमानी गिरफ्तारियों को कम करने में मदद की, साथ ही पीड़ितों के अधिकारों का संतुलन बनाए रखा।
‘कूलिंग अवधि’ और FWC पर विवाद
इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा लागू की गई दो महीने की “कूलिंग अवधि” और एफडब्ल्यूसी को रेफ़रल का उद्देश्य जल्दबाज़ी में गिरफ्तारी रोकना और मध्यस्थता को बढ़ावा देना है। लेकिन आलोचकों का मानना है कि यह पीड़ितों को न्याय मिलने में देरी करता है और आपराधिक न्याय प्रणाली की स्वतंत्रता को कमजोर करता है। इसी तरह के निर्देश राजेश शर्मा (2017) मामले में दिए गए थे, जिन्हें 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने जनविरोध के बाद रद्द कर दिया था।
न्यायिक प्रयोगवाद
एफडब्ल्यूसी और कूलिंग अवधि की शुरुआत को न्यायिक अतिरेक माना जा रहा है। ये कदम किसी क़ानून पर आधारित नहीं हैं और पुलिस व मजिस्ट्रेट के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे प्रयोगात्मक निर्देश समाज में विरोध झेलते हैं और अंततः वापस लिए जाते हैं।
पुनर्विचार की आवश्यकता
चूँकि पहले से ही दुरुपयोग रोकने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय मौजूद हैं, हालिया फैसला पीड़ितों की न्याय तक पहुँच को अनावश्यक रूप से बाधित कर सकता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के लिए यह आवश्यक है कि वह निर्दोषों की रक्षा और सच्ची शिकायतों के शीघ्र निवारण के बीच संतुलन पर पुनर्विचार करे।

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