भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय: आदिवासी महिलाओं को संपत्ति का अधिकार
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 17 जुलाई 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें आदिवासी महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को मान्यता दी गई। रामचरण बनाम सुखराम मामले में न्यायालय ने कहा कि बेटियों को पैतृक संपत्ति से वंचित करना उनके समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। यह निर्णय आदिवासी समाज में लैंगिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जहाँ प्रचलित परंपरागत कानून अक्सर महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित कर देते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले की धैया नामक एक अनुसूचित जनजाति महिला के उत्तराधिकारियों से जुड़ा था। उन्होंने अपने नाना से मिली पैतृक संपत्ति के बंटवारे की मांग की। प्रतिवादियों ने इसे ठुकरा दिया और दलील दी कि आदिवासी रीति-रिवाज महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार नहीं देते। निचली अदालतों ने याचिका खारिज कर दी, पर बाद में उच्च न्यायालय ने महिला उत्तराधिकारियों को समान हिस्सा देने का आदेश दिया और परंपराओं में मौजूद लैंगिक भेदभाव को असंवैधानिक माना।
प्रथागत कानून और लैंगिक भेदभाव
अनुसूचित क्षेत्रों में विवाह, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे विषयों पर प्रथागत कानून लागू होते हैं। अधिकांश कानून महिलाओं को पैतृक भूमि का अधिकार नहीं देते, जबकि वे कृषि में बराबर योगदान करती हैं। आँकड़ों के अनुसार, केवल 16.7% आदिवासी महिलाओं के पास भूमि है, जबकि पुरुषों के पास 83.3% भूमि है। महिलाओं को भूमि से वंचित करने का एक कारण यह बताया जाता है कि विवाह के बाद गैर-आदिवासी परिवारों में भूमि चली जाएगी। लेकिन व्यावहारिक रूप से भूमि की बिक्री पूरे समुदाय के हित में नहीं होती, जिससे ऐसी प्रथाओं की वैधता पर प्रश्न खड़े होते हैं।
कानूनी उदाहरण और चुनौतियाँ
सर्वोच्च न्यायालय ने मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य (1996) में महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करने वाली प्रथाओं को बनाए रखा था, यह कहते हुए कि बदलाव से कानूनी अव्यवस्था हो सकती है। लेकिन हाल के फैसलों जैसे प्रभा मिंज बनाम मार्था एक्का (2022) और कमला नेती बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2022) में न्यायालय ने प्रथाओं को कठोर मानकों पर परखा है-क्या वे प्राचीन हैं, निश्चित हैं, तर्कसंगत हैं और जननीति के अनुरूप हैं। इससे संकेत मिलता है कि अदालतें अब भेदभावपूर्ण प्रथाओं को बिना जांचे-परखे मान्यता नहीं देतीं।
विधायी सुधार की आवश्यकता
वर्तमान कानून, जैसे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, आदिवासी महिलाओं को स्पष्ट रूप से बाहर रखते हैं। यह स्थिति एक अलग जनजातीय उत्तराधिकार अधिनियम बनाने की आवश्यकता दर्शाती है। यदि आदिवासी कानूनों को हिंदू और ईसाई उत्तराधिकार कानूनों की तरह संहिताबद्ध किया जाए, तो लैंगिक समानता और कानूनी स्पष्टता सुनिश्चित हो सकती है। ऐसे सुधार से आदिवासी महिलाओं के अधिकार सुरक्षित होंगे और सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिलेगा, बिना परंपराओं को पूरी तरह तोड़े।
आदिवासी समाज पर प्रभाव
महिलाओं को संपत्ति का अधिकार मिलना आदिवासी समाज की पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देता है। इससे महिलाएँ आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त होंगी। समान उत्तराधिकार अधिकार मिलने से उनकी स्थिति बेहतर होगी और लैंगिक भेदभाव कम होगा। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला उन प्रथाओं की समीक्षा को प्रोत्साहित करता है जो असमानता को बढ़ावा देती हैं और आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास को समर्थन देता है।

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