लेखक: भारतेंदु हरिश्चंद्र
यह अध्याय भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित एक पत्र पर आधारित है, जो ‘कविवचन सुधा’ पत्रिका में 14 अक्टूबर 1871 को प्रकाशित हुआ था। यह हरिद्वार यात्रा का रोचक वर्णन है। पाठ में प्रकृति, संस्कृति और आध्यात्मिक अनुभवों का सुंदर चित्रण है। यह पाठ लगभग 150 वर्ष पुरानी हिंदी में लिखा गया है, जो सरल और चित्रात्मक है।
लेखक का संक्षिप्त परिचय
जन्म और मृत्यु: 1850-1885 ई. (वाराणसी में जन्म)।
उपनाम: आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक।
योगदान: हिंदी साहित्य में कविता, नाटक, निबंध और यात्रा-वृत्तांत लिखे। ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ का नारा दिया।
प्रमुख रचनाएँ: सत्य हरिश्चंद्र, भारत-दुर्दशा, अंधेर नगरी, सरयूपार की यात्रा।
पत्रिकाएँ: कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी।
विषय: समाज-सुधार, राष्ट्र-प्रेम, अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वाधीनता की भावना।
विशेषता: यात्राओं से प्रेरित होकर लिखते थे; शिक्षा के लिए यात्राओं को महत्वपूर्ण मानते थे।
पाठ का सारांश
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘कविवचन सुधा’ के संपादक को पत्र लिखकर अपनी 1871 की हरिद्वार यात्रा का वर्णन किया है। वे हरिद्वार की प्राकृतिक सुंदरता, गंगा नदी, पर्वत, वृक्ष, पक्षी और आध्यात्मिक शांति से प्रभावित हुए। पत्र में हरिद्वार को पुण्य भूमि बताया गया है, जहाँ मन स्वतः शुद्ध हो जाता है। वे वहाँ के घाटों, तीर्थों, साधुओं और सादगी भरे जीवन का चित्रण करते हैं। यात्रा के दौरान उन्होंने गंगा स्नान, भागवत पाठ और प्रकृति के निकट भोजन किया, जो उन्हें अपार आनंद देता था। पत्र का अंत संपादक से प्रकाशन की अपील के साथ होता है।
मुख्य बिंदु (पाठ से महत्वपूर्ण विवरण)
हरिद्वार की प्राकृतिक सुंदरता:
- तीन ओर हरे-हरे पर्वतों से घिरा।
- पर्वतों पर हरी-भरी लताएँ (वल्ली) सज्जनों की शुभ इच्छाओं जैसी लहलहाती हैं।
- बड़े वृक्ष साधुओं जैसे तपस्या करते हुए खड़े, हर मौसम सहते हैं।
- वृक्षों से फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते, छाल, बीज, लकड़ी, जड़, कोयला और राख तक उपयोगी – “पत्थर मारने से फल देते हैं”।
- पक्षी चहचहाते, नगर के शिकारियों से निडर।
- वर्षा से हरियाली जैसे यात्रियों के लिए हरा गलीचा बिछा हो।
गंगा नदी का वर्णन:
- त्रिभुवन पावनी, राजा भगीरथ की कीर्ति जैसी।
- जल शीतल, मिष्ट (मीठा), स्वच्छ, श्वेत; जैसे चीनी का पानी बर्फ में जमाया हो।
- जल-जंतु कल्लोल करते; नदी का शब्द (वेग) तेज।
- दो धाराएँ: नील धारा और श्री गंगा जी।
- बीच में नीचा पर्वत; नील धारा तट पर छोटा पर्वत, शिखर पर चंडिका देवी।
- हरि की पैड़ी: पक्का घाट, मुख्य स्नान स्थल।
- गंगा ही मुख्य देवता; वैरागी मठ-मंदिर बनाए हैं।
तीर्थ और स्थान:
- मुख्य तीर्थ: हरिद्वार, कुशावर्त, नीलधारा, विल्वपर्वत, कनखल।
- कनखल: दक्ष यज्ञ स्थल, सती ने शरीर त्यागा।
- हरिद्वार निर्मल, इच्छा-क्रोध से मुक्त; पंडे संतोषी (एक पैसा लाख मानते)।
- दुकानें, धर्मशालाएँ; रात को बंद।
लेखक के व्यक्तिगत अनुभव:
- दीवान कृपा राम के बंगले पर ठहरे; शीतल पवन।
- ग्रहण में स्नान, भागवत पारायण।
- मित्र कल्लू जी के साथ आनंद।
- गंगा तट पर पत्थर पर भोजन: सोने की थाली से बढ़कर सुख।
- चित्त प्रसन्न, निर्मल; ज्ञान, वैराग्य, भक्ति का उदय।
- जनेऊ महीन, कुशा सुगंधित (दालचीनी, जावित्री जैसी)।
समापन: चित्त अब भी हरिद्वार में; पाठकों को वृत्तांत बताकर मौन।
भाषा और शैली की विशेषताएँ
- भाषा: पुरानी हिंदी (150 वर्ष पुरानी), सरल, चित्रात्मक, काव्यात्मक। तुलनाएँ (उपमा) अधिक: जैसे वृक्ष साधुओं जैसे, गंगा भगीरथ की कीर्ति।
- शैली: पत्र शैली – संबोधन (श्रीमान संपादक…), व्यक्तिगत अनुभव, संवादात्मक, स्वाभाविक।
- विशेष: प्राचीन वर्तनी – शिषर (शिखर), जात्रियों (यात्रियों), बधिक (शिकारी)।
- भाव: आश्चर्य, प्रसन्नता, भक्ति, वैराग्य, प्रकृति प्रेम।
व्याकरण बिंदु:
- आदरार्थ बहुवचन: एकवचन के लिए ‘हैं’ का प्रयोग (जैसे गंगा जी देवता हैं) – सम्मान दिखाने के लिए।
- काल: वर्तमान (है/हैं), भूत (था/थी), भविष्य (दिजिएगा)।
- उदाहरण: “यह भूमि घिरी है” (वर्तमान), “उदय होता था” (भूत), “स्थानदान दीजिएगा” (भविष्य)।
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