हरिद्वार – सारांश
यह अध्याय “हरिद्वार” भारतेंदु हरिश्चंद्र की यात्रा-वर्णन शैली पर आधारित है। इसमें उन्होंने अपनी 1871 ईस्वी में की गई हरिद्वार यात्रा का विवरण दिया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र मानते थे कि केवल पुस्तकों से ही शिक्षा पूरी नहीं होती, बल्कि यात्राएँ भी जीवन के ज्ञान और अनुभव को समृद्ध करती हैं। हरिद्वार पहुँचते ही उनका मन प्रसन्न और निर्मल हो गया। उन्होंने वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, ऊँचे पर्वत, हरे-भरे वृक्ष, पक्षियों की चहचहाहट और गंगा की कलकल धारा का बहुत सुंदर चित्रण किया है। गंगा तट, घाटों की चहल-पहल, दुकानों का दृश्य और वहाँ की धार्मिक व सांस्कृतिक महत्ता का वर्णन उन्होंने अत्यंत सरल और रोचक भाषा में किया। इस यात्रा-वर्णन से हमें हरिद्वार की भव्यता, भारतीय संस्कृति की विशेषता और भारतेंदु की संवेदनशीलता का पता चलता है। यह पाठ हमें यह सिखाता है कि यात्रा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह हमें प्रकृति, इतिहास और संस्कृति को समझने का अवसर भी देती है।
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