आदमी का अनुपात – सारांश
इस कविता में कवि ने मनुष्य और ब्रह्मांड के अनुपात को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। शुरुआत में कवि दिखाता है कि दो व्यक्ति कमरे में रहते हैं, कमरा घर में है, घर मोहल्ले में, मोहल्ला नगर में, नगर प्रदेश में, प्रदेश देश में और फिर देश पृथ्वी पर। इस प्रकार धीरे-धीरे विस्तार करते हुए कवि हमें यह समझाता है कि पृथ्वी भी अनगिनत नक्षत्रों और लाखों ब्रह्मांडों में सिर्फ एक छोटी-सी जगह है। यानी ब्रह्मांड की विशालता के सामने मनुष्य बहुत ही छोटा और नगण्य है।
लेकिन इसके बावजूद मनुष्य अपने छोटेपन को भूलकर ईर्ष्या, अहंकार, स्वार्थ और घृणा जैसी बुरी भावनाओं में उलझा रहता है। वह सीमाएँ खड़ी करता है, दूसरों पर अपना अधिकार जताता है और यहाँ तक कि एक ही कमरे में रहते हुए भी अलग-अलग दुनिया बना लेता है। कवि यह संदेश देता है कि जब पूरा ब्रह्मांड इतना विराट और अनंत है, तो मनुष्य को अपने भीतर संकीर्णता और नकारात्मक भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। इसके स्थान पर उसे सहअस्तित्व, सहयोग, शांति और सौहार्द के साथ जीवन जीना चाहिए।
इस प्रकार कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि मनुष्य का स्थान ब्रह्मांड में कितना छोटा है, फिर भी वह अहंकार में डूबकर अपने को सबसे बड़ा मानता है। कवि ने हमें चेताया है कि हमें अपनी सीमाओं को समझकर विनम्र, सहिष्णु और मानवता से भरपूर जीवन जीना चाहिए।
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