पाठ का सारांश (भावार्थ)
यह व्यंग्य रचना एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो सच्चाई और स्पष्टवादिता के सिद्धांत पर जीवन जीने का प्रयास करता है, लेकिन उसकी यह आदत कई बार उसे मुश्किलों में डाल देती है।
लेखक बताते हैं कि बचपन से ही उन्हें सिखाया गया कि “मनुष्य को सच बोलना चाहिए और किसी को धोखा नहीं देना चाहिए।”उन्होंने यह गाँठ बाँध ली कि वे हमेशा स्पष्टवादी रहेंगे।
लेखक के मित्र रौनकलाल को भाषण देने की बहुत आदत थी। जब किसी साहित्यकार की जयंती में उनसे पाँच मिनट बोलने को कहा गया, तो वे लगातार बोलते रहे – लोग उठकर जाने लगे।कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब रौनकलाल ने लेखक से अपने भाषण के बारे में पूछा, तो लेखक ने सच्चाई से कह दिया कि उन्होंने “पूरा कार्यक्रम बिगाड़ दिया।”इससे दोनों में झगड़ा हो गया और कपड़े तक फट गए।
इसके बाद लेखक अपनी नौकरी के मालिक लाला किशोरीलाल के प्रसंग का वर्णन करते हैं। लाला जी खुद को बहुत बड़ा गायक समझते थे। जब उन्होंने लेखक से अपने गाने के बारे में राय पूछी, तो लेखक ने सच-सच कह दिया कि उनका गाना अच्छा नहीं है।इससे नाराज़ होकर लाला जी ने उन्हें घर से निकाल दिया।
फिर लेखक एक मित्र के नाटक में गए। नाटक बहुत खराब था, लेकिन इस बार लेखक चुप रहे ताकि किसी का मन न दुखे।उन्होंने सीखा कि “सत्य बोलना चाहिए, पर प्रिय बोलना चाहिए।”
अंत में लेखक बताते हैं कि अब उन्होंने कठोर स्पष्टवादिता छोड़ दी है।अब वे सबके साथ मधुर व्यवहार करते हैं, जिससे सब खुश हैं – पत्नी भी, मित्र भी, और मालिक भी।
मुख्य भाव
- केवल सच्चाई नहीं, प्रियता के साथ सच्चाई बोलना भी आवश्यक है।
- बिना सोच-समझे स्पष्टवादी होना कभी-कभी नुकसानदेह होता है।
- विनम्रता और संयम से कही गई बात अधिक प्रभावशाली होती है।
- जीवन में व्यवहारिक बुद्धि के साथ बोलने की कला आनी चाहिए।
मुख्य संदेश
- सच्चाई हमेशा आवश्यक है, पर उसे प्रियता और विवेक के साथ कहना चाहिए।
- अत्यधिक स्पष्टवादिता से झगड़े और अपमान झेलने पड़ते हैं।
- बुद्धिमानी यह है कि सत्य और मधुर वचन दोनों का संतुलन रखा जाए।
- विनम्रता ही सच्चे स्पष्टवाद का आधार है।

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