पाठ का सारांश (भावार्थ)
यह पाठ एक यात्रा-वृत्तांत है जिसमें लेखक ने रामेश्वरम् यात्रा का सजीव वर्णन किया है।
लेखक 18 मई की सुबह पामवन की ओर जाने वाली ट्रेन में सवार होते हैं। रास्ते में वे देखते हैं कि ट्रेन एक संकरी पटरी पर चल रही है जिसके दोनों ओर समुद्र है।
मण्डपम् स्टेशन के बाद ट्रेन समुद्र के ऊपर बने पामवन पुल पर चलती है — यह अनुभव लेखक को अत्यंत रोमांचक लगता है।
लेखक को यह दृश्य ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी और सागर का मिलन हो रहा हो। वे इसे त्याग और समर्पण का प्रतीक बताते हैं।
ट्रेन पामवन पहुँचती है, जहाँ से वे रामेश्वरम् के मंदिर देखने जाते हैं। यह मंदिर चार धामों में से एक है और इसकी लंबी दालानें, नक्काशीदार खंभे और विशाल गोपुरम् लेखक को बहुत आकर्षक लगते हैं।
मंदिर के अंदर प्रसिद्ध सर्वतीर्थ कूप है, जिसका मधुर जल वे पीते हैं। लेखक बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण लगभग 1000 वर्ष पहले श्रीलंका के राजा वरदराज शेखर ने कराया था। बाद में राजा पराक्रमबाहु और अन्य राजाओं ने भी इसमें निर्माण करवाया।
पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान राम ने रावण वध के बाद यहाँ शिवलिंग की स्थापना की थी। हनुमान जी के विलंब से आने पर सीता जी ने बालू से शिवलिंग बनाया था, जिसे राम ने पूजकर यह स्थान रामेश्वरम् कहलाया।
रामेश्वरम् के निकट गंधमादन पर्वत, लक्ष्मणतीर्थ, रामतीर्थ और सीतातीर्थ जैसे अनेक तीर्थ हैं।
इसके बाद लेखक धनुष्यकोटि पहुँचते हैं — यह स्थान समुद्र के किनारे है जहाँ से लंका मात्र 22 मील दूर है।
लेखक वहाँ के मुक्त वातावरण का अनुभव करते हैं और बताते हैं कि यही वह स्थान है जहाँ भगवान राम ने समुद्रराज वरुण से मार्ग देने की प्रार्थना की थी।
मुख्य भाव
- यह पाठ तीर्थयात्रा के महत्व और भारत की सांस्कृतिक एकता को दर्शाता है।
- समर्पण, श्रद्धा और त्याग से जीवन महान बनता है।
- रामेश्वरम् मंदिर भारत की प्राचीन कला और स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है।
- धनुष्यकोटि का संबंध रामायण की घटनाओं से है।

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