पाठ का सारांश (भावार्थ)
यह कहानी ममता, त्याग और सेवा-भावना पर आधारित है।मुख्य पात्र लाजवंती एक अत्यंत स्नेहमयी माँ है। उसका पुत्र हेमराज बीमार पड़ जाता है, जिससे लाजवंती का जीवन व्याकुल हो उठता है। वह दिन-रात उसकी सेवा करती रहती है।
गाँव के दुर्गादास वैद्य कई दवाएँ देते हैं, पर हेमराज का बुखार नहीं उतरता। अंत में वैद्य बताते हैं कि यह मियादी बुखार है जो इक्कीस दिन में उतरेगा। लाजवंती भयभीत हो जाती है क्योंकि उसने पहले भी अपना एक पुत्र इसी बीमारी में खो दिया था।
वह भगवान की शरण में जाती है और देवी के मंदिर में जाकर रोती है। वहाँ वह देवी से वचन लेती है –
“यदि मेरा पुत्र बच जाए तो मैं तीर्थ-यात्रा पर जाऊँगी।”
उसके आँसुओं से देवी का हृदय पिघल जाता है, और उसी रात हेमराज का बुखार उतर जाता है।रामलाल (उसका पति) यह देखकर बहुत प्रसन्न होता है और तीर्थ-यात्रा के लिए तैयार होने को कहता है।
कुछ समय बाद लाजवंती यात्रा की तैयारी करने लगती है। पूरा गाँव उसके घर में उत्सव जैसा वातावरण होता है। तभी रात में उसे पड़ोसिन हरो के रोने की आवाज सुनाई देती है।जब वह कारण पूछती है, तो हरो बताती है कि उसकी कुँवारी बेटी की शादी का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा है और बारात के भोजन का प्रबंध नहीं हुआ है।
यह सुनकर लाजवंती का हृदय करुणा से भर उठता है। वह अपने तीर्थ के लिए जमा किए गए दो सौ रुपये हरो को दे देती है।उसे इस त्याग से जो सुख मिलता है, वह किसी भी तीर्थ-यात्रा से अधिक पवित्र अनुभव देता है।
लेखक ने दिखाया है कि सच्चा तीर्थ तो वही है जहाँ मानव सेवा और त्याग की भावना हो।
मुख्य भाव
- सच्ची तीर्थ-यात्रा मनुष्य के भीतर की करुणा और सेवा-भावना है।
- त्याग में ही वास्तविक सुख है, प्राप्ति में नहीं।
- माँ का प्रेम और ममता हर विपत्ति को जीत सकती है।
- दूसरों की सहायता करना ही सच्चा धर्म है।
मुख्य संदेश
- सच्ची तीर्थ-यात्रा सेवा और त्याग में है।
- दूसरों की मदद करना ही ईश्वर की पूजा है।
- माँ का प्रेम और त्याग सर्वोच्च भावना है।
- जीवन का असली आनंद दूसरों के सुख में है।

Leave a Reply