पाठ का सारांश (भावार्थ)
यह पाठ आदि शंकराचार्य के जीवन, उनके ज्ञान, संन्यास, यात्रा और भारत की एकता के कार्यों का वर्णन करता है।मध्यप्रदेश प्राचीनकाल से शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रमुख केन्द्र रहा है। कृष्ण और सुदामा ने यहीं सान्दीपनि आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी।
आदि शंकराचार्य का जन्म सन् 780 ई. में केरल के कालड़ी ग्राम में पूर्णा नदी के तट पर हुआ था। उनके पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा थीं। बचपन से ही वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। एक वर्ष में बोलना और तीन वर्ष की आयु में स्मरणशक्ति का परिचय देना उनकी असाधारण योग्यता को दर्शाता है।
संन्यास की ओर यात्रा
पाँच वर्ष की आयु में उनका उपनयन संस्कार हुआ और वे गुरुकुल में अध्ययन करने लगे। सात वर्ष की उम्र में वे शास्त्रों में प्रवीण हो गए।एक दिन जब वे माँ के साथ नदी में स्नान कर रहे थे, एक मगरमच्छ ने उनके पैर पकड़ लिए। शंकर ने माँ से कहा कि यदि वे संन्यास की अनुमति दे दें, तो शायद उनका जीवन बच जाए। माँ ने आँसू भरी आँखों से अनुमति दी और उसी क्षण मगरमच्छ ने उन्हें छोड़ दिया।
गुरु की खोज
आठ वर्ष की अवस्था में शंकर ने घर छोड़ दिया और गुरु की खोज में उत्तर भारत की ओर चल पड़े।वे यात्रा करते हुए अमरकण्टक (मध्यप्रदेश) पहुँचे – जो नर्मदा नदी का उद्गम स्थल है। वहाँ से वे नर्मदा की परिक्रमा करते हुए ओंकारेश्वर पहुँचे।
ओंकारेश्वर में शंकराचार्य
ओंकारेश्वर, मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले में नर्मदा तट पर स्थित है। वहाँ गुरु गोविन्दपाद के आश्रम में प्रवेश करते ही शंकराचार्य को शांति मिली।गुरु ने जब पूछा – “तू कौन है बालक?”शंकर ने उत्तर दिया – “मैं न पृथ्वी हूँ, न जल, न वायु, न अग्नि, मैं तो अखण्ड चैतन्य हूँ।”गुरु गोविन्दपाद शंकर की बुद्धि देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। शंकराचार्य ने चार वर्ष तक उनके सान्निध्य में रहकर वेदान्त का अध्ययन किया और सोलह वर्ष की आयु में ‘प्रस्थानत्रय भाष्य’ लिखा।
नर्मदा में एक बार भयंकर बाढ़ आई, तो शंकराचार्य ने अपनी योगशक्ति से नर्मदा का जल कमण्डल में भर लिया और ग्रामवासियों की रक्षा की। इससे गुरु को अत्यंत प्रसन्नता हुई।
गुरु का आदेश और काशी की यात्रा
गुरु गोविन्दपाद ने कहा –
“तुम अब देश का भ्रमण करो, लोगों को सही दिशा दो और वैदिक धर्म का पुनरुत्थान करो।”
शंकर काशी पहुँचे जहाँ उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान कुमारिल भट्ट से मिलने का प्रयास किया। वे समाधि की स्थिति में थे, इसलिए उन्होंने शंकर को मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने की सलाह दी।
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ
शंकराचार्य माहिष्मती (महेश्वर) पहुँचे। पनघट पर उन्होंने सुवाम्बा नामक पनिहारिन से मण्डन मिश्र का घर पूछा।वहाँ पहुँचने पर मण्डन मिश्र ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ स्वीकार किया। निर्णायिका उनकी पत्नी भारती बनीं।शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पराजित हुए और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। शंकराचार्य ने उन्हें श्रृंगेरी मठ का प्रथम प्रधानाचार्य बनाया, जो आगे चलकर सुरेश्वराचार्य कहलाए।
उज्जयिनी में शंकराचार्य
सन् 804 ई. में शंकराचार्य उज्जयिनी पहुँचे। उस समय यह कापालिकों का प्रमुख केन्द्र था। उनके अमर्यादित आचरण से आचार्य को दुख हुआ। उन्होंने शास्त्रार्थ में कापालिकों को पराजित किया।कापालिकों ने उन पर आक्रमण करने की कोशिश की, पर वे बच गए।उन्होंने देखा कि समाज में कुरीतियाँ, फूट और द्वेष फैला हुआ है। उन्होंने लोगों को एकता, समानता और सदाचार का संदेश दिया।

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