सारांश : “मैं ढूँढता तुझे था”
कवि रामनरेश त्रिपाठी इस कविता में ईश्वर की खोज और सच्चे भक्ति भाव का सुंदर चित्र प्रस्तुत करते हैं। कवि कहता है कि वह ईश्वर को बगीचों, जंगलों और भजनों में ढूँढ़ता रहा, जबकि ईश्वर उसे गरीबों, दुखियों और पीड़ितों के बीच खोज रहा था। जब कवि मान और धन में डूबा हुआ था, तब ईश्वर किसी दुखी के आँसू बनकर बह रहा था। कवि यह समझाता है कि ईश्वर मंदिरों, गीतों या भजनों में ही नहीं, बल्कि उन लोगों के बीच है जो पीड़ा और कठिनाई झेल रहे हैं।
कवि को यह भी अहसास होता है कि वह केवल कथन में व्यस्त रहा, जबकि ईश्वर कर्म में लगा रहा। जब संसार की भीड़ और मोह-माया में कवि भ्रमित हो गया, तब वह ईश्वर की शरण में आया। कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसे ऐसी शक्ति दे जिससे वह हर स्थिति में संतुलित रह सके-दुख में हार न माने और सुख में ईश्वर को न भूले।
कवि अंत में कहता है कि ईश्वर सर्वत्र है-किरणों में, फूलों में, हवा और आकाश में। ईश्वर सौंदर्य, जीवन और विस्तार का प्रतीक है। वह कवि से यह प्रार्थना करता है कि उसे ऐसी दृष्टि मिले जिससे वह ईश्वर को अपनी आँखों, मन और वचन में देख सके।
इस कविता का मुख्य संदेश यह है कि ईश्वर की सच्ची प्राप्ति मंदिरों या भजनों में नहीं, बल्कि निस्वार्थ कर्म, दया, सेवा और प्रेम में है।

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