स्पष्टवादी – सारांश
इस पाठ में लेखक ने हास्य और व्यंग्य के माध्यम से स्पष्टवादिता के गुण और उसके परिणाम को रोचक ढंग से बताया है। लेखक कहते हैं कि बचपन से ही उन्हें सिखाया गया था कि मनुष्य को सच बोलना चाहिए और स्पष्टवादी होना चाहिए, इसलिए उन्होंने यह आदत अपना ली। परंतु यह आदत उन्हें कई बार मुश्किलों में डाल देती है। लेखक के मित्र मिस्टर रौनकलाल हर जगह भाषण देने लगते थे और बहुत लंबा बोलते थे। जब लेखक ने सच्चाई से कहा कि उन्होंने कार्यक्रम का सत्यानाश कर दिया, तो दोनों में झगड़ा हो गया। इसी तरह सेठ किशोरीलाल खुद को बड़ा गायक मानते थे। जब लेखक ने सच-सच कह दिया कि उनका गाना बुरा है, तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। एक बार नाटक देखने पर भी लेखक ने मुस्करा कर सच बोलने से खुद को रोक लिया, ताकि मित्र का मन न दुखे। अंत में लेखक समझ जाते हैं कि हर जगह सच बोलना ठीक नहीं होता। घर में और बाहर सबको प्रसन्न रखने के लिए उन्होंने “सत्यं ब्रूयात, प्रियं च ब्रूयात” अर्थात् “सत्य बोलो, पर प्रिय बोलो” का सिद्धांत अपनाया। अब वे सबके प्रिय बन गए हैं। इस कहानी से यह सीख मिलती है कि सच्चाई जरूरी है, पर उसे प्रेम और विनम्रता के साथ कहना चाहिए।

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