प्रार्थना – सारांश
इस अध्याय “समाज-सेवा” में पदुमलाल पुन्नालाल वख्शी ने समाज के महत्व और परोपकार की भावना को सरल भाषा में समझाया है। मनुष्य अकेला नहीं रह सकता, इसलिए उसे समाज का संगठन करना पड़ता है। समाज और व्यक्ति का आपस में गहरा संबंध है—समाज की उन्नति से व्यक्ति का विकास होता है और व्यक्ति की उन्नति से समाज प्रगति करता है। समाज में समता का होना आवश्यक है, क्योंकि असमानता से ईर्ष्या, द्वेष और फूट उत्पन्न होती है। मनुष्य के भीतर स्वार्थ-बुद्धि के साथ-साथ परार्थ-बुद्धि भी होती है, जिससे दया, प्रेम, सहानुभूति और सेवा जैसे गुण प्रकट होते हैं। सेवा का अर्थ है—दूसरों का दुःख दूर करना और उन्हें सुख पहुँचाना। किसी व्यक्ति की सहायता करना वास्तव में पूरे समाज की सेवा करना है। यथार्थ समाज-सेवा वही है, जो अधिक से अधिक लोगों को सुख पहुँचाए। समाज में समय-समय पर परिवर्तन भी आवश्यक होते हैं। जो लोग समाज की भलाई के लिए कष्ट सहते हैं और उसे सही मार्ग दिखाते हैं, वे समाज-सुधारक कहलाते हैं। समाज में दीन-दुखियों, अनाथों, अज्ञानी और कुपथगामी लोगों की सहायता करना, गरीबों और रोगियों का उत्थान करना भी समाज-सेवा है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि पर-सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि नवयुवकों और सभी सक्षम लोगों का कर्तव्य है कि वे समाज-सेवा में भाग लें और मानवता को आगे बढ़ाएँ।
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