प्रार्थना – सारांश
पाठ “सिक्के की आत्मकथा” में एक सिक्के ने अपने जीवन की यात्रा को आत्मकथा के रूप में सुनाया है। सिक्का बताता है कि वह पहले धरती के अन्दर धातु के अयस्क के रूप में था। खनन करने वाले लोग मशीनों और औज़ारों से उसे धरती से निकालकर भट्टी में पिघलाते हैं और फिर टकसाल में ले जाकर सिक्के का रूप दिया जाता है। प्राचीन समय में राजाओं ने सिक्कों पर अपने राज्य की मुद्रा और मूल्य अंकित कर उन्हें सोने, चाँदी, ताँबे आदि धातुओं से बनवाया। स्वतंत्रता के बाद सिक्के का नया रूप सामने आया, जिस पर अशोक चिह्न, मूल्य और वर्ष अंकित किया गया। सिक्का स्वयं को गर्व से कहता है कि वह समाज के हर वर्ग की ज़रूरत पूरी करता है और सभी लोग उसका आदर करते हैं। सिक्का एक हाथ से दूसरे हाथ में घूमते हुए दुकानदार, दूधवाले, चायवाले से लेकर बच्चों की गुल्लक तक पहुँचता है। गुल्लक उसके लिए विश्राम भवन है, जहाँ वह अल्पबचत का प्रतीक बनता है और कठिन समय में काम आता है। समय के साथ आर्थिक उन्नति के कारण सिक्के का चलन और बढ़ गया है। कभी-कभी उसकी कमी हो जाती है, तो उसकी जगह नोट छापे जाते हैं, पर सिक्का नोटों से अधिक समय तक टिकाऊ रहता है। अंत में सिक्का गर्व से कहता है कि उसका अस्तित्व अजर-अमर है और जब तक जीवन है, उसकी यात्रा निरंतर चलती रहेगी।
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