शहीद की माँ – सारांश
यह अध्याय “शहीद की माँ” स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और उनकी माँ के त्याग, साहस और देशभक्ति पर आधारित है। काकोरी कांड में अंग्रेजों ने बिस्मिल को पकड़कर फाँसी की सजा सुनाई थी। फाँसी से एक दिन पहले उनकी माँ उनसे मिलने जेल पहुँची। बिस्मिल माँ से नहीं मिलना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि माँ की आँखों के आँसू देखकर उनका हृदय कमजोर न पड़ जाए। लेकिन उनकी माँ का हृदय चट्टान की तरह दृढ़ था। उन्होंने अपने बेटे को समझाया कि जिस भारत माँ के लिए वह बलिदान दे रहा है, वही उनकी भी माँ है।
माँ ने बेटे को यह विश्वास दिलाया कि उसकी शहादत पर वे गर्व महसूस करती हैं, दुःख नहीं। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और प्रसन्न होकर विदा ली। बिस्मिल ने माँ से इच्छा जताई कि आज़ादी मिलने के बाद उनकी तस्वीर को ऐसी जगह रखा जाए जहाँ से वे जश्न देख सकें, पर कोई उनकी तस्वीर न देख सके, ताकि उस दिन लोगों की आँखों में आँसू न आएँ। विदा के समय माँ ने बेटे को अपने हाथ से बेसन के लड्डू खिलाए और गर्व से कहा कि देश के लिए अपने बेटे को बलिदान करने में उन्हें खुशी हो रही है।
यह अध्याय हमें सिखाता है कि सच्चा देशप्रेम व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर होता है। माँ और बेटे दोनों ने देश की स्वतंत्रता को सबसे बड़ी प्राथमिकता दी। बिस्मिल की शहादत और उनकी माँ का त्याग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की अमर गाथा है।
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