अपना स्वरूप – सारांश
“अपना स्वरूप” एक शिक्षाप्रद कहानी है, जो विजय गुप्ता द्वारा लिखी गई है। यह कहानी एक गाँव के किसान बीरबल की है, जो उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों में बसे एक ऐसे गाँव में रहता था, जहाँ लोग अपनी सभी जरूरतें गाँव से ही पूरी करते थे। वहाँ न बसें थीं, न रेलगाड़ियाँ, न हवाई जहाज। गाँव में झरनों का मीठा पानी, ठंडी हवा, खेतों का अनाज, फलों के पेड़ और कपास की वस्तुएँ उपलब्ध थीं, इसलिए लोग शहरों की ओर कम ही जाते थे। बीरबल ने एक दिन शहर घूमने का फैसला किया। वहाँ उसने कई नई चीजें देखीं, लेकिन उसकी नजर एक दर्पण पर पड़ी, जिसमें लोगों की परछाई दिखती थी। उसे आश्चर्य हुआ कि उसमें उसका अपना चेहरा दिख रहा था। दुकानदार ने बताया कि यह दर्पण है, जिसमें सामने की चीजों की परछाई दिखती है। बीरबल ने दर्पण और कुछ अन्य सामान खरीदा और घर लौट आया। उसने दर्पण को संदूक में रख दिया और अपनी पत्नी को एक सुंदर माला दी। पत्नी ने संदूक खोलकर दर्पण देखा और उसमें अपनी परछाई को देखकर सोचा कि बीरबल ने उसकी सौतन को जादुई तरीके से दर्पण में बंद कर लिया है। वह दुखी होकर सास को बुलाई। सास ने दर्पण में अपनी परछाई देखी और कहा कि इसमें एक बूढ़ी औरत है। फिर ससुर ने दर्पण देखा और बोला कि इसमें एक सफेद दाढ़ीवाला बूढ़ा है। तीनों अपनी-अपनी परछाई को देखकर भ्रम में पड़ गए और बहस करने लगे। तभी बीरबल आया और समझाया कि दर्पण में कोई बंद नहीं है, यह सिर्फ सामने वाले की परछाई दिखाता है। उसने दर्पण उल्टा करके दिखाया कि अब कोई नहीं दिख रहा। बीरबल ने बताया कि जैसे दर्पण में हमारा अपना प्रतिबिंब दिखता है, वैसे ही हम अपने स्वभाव के अनुसार दूसरों में गुण या दोष देखते हैं। कहानी में दुर्योधन और युधिष्ठिर का उदाहरण दिया गया है। दुर्योधन को सभा में सभी लोग बुरे दिखे, क्योंकि उसका स्वभाव बुरा था, जबकि युधिष्ठिर को सभी अच्छे दिखे, क्योंकि उनका स्वभाव अच्छा था। कहानी का संदेश है कि हमें अपने स्वभाव को उत्तम बनाना चाहिए, ताकि हमें सब अच्छा दिखे और हम ईर्ष्या, द्वेष और घृणा से दूर रहकर सदा खुश रहें।
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