मेरा गाँव मिल क्यों नहीं रहा? – सारांश
यह अध्याय “मेरा गाँव मिल क्यों नहीं रहा?” लेखक रामनारायण उपाध्याय का संस्मरण है, जिसमें उन्होंने गाँव के बदलते स्वरूप और घटती ग्रामीण संस्कृति को चित्रित किया है। लेखक बताते हैं कि जब वे गाँव पहुँचते हैं तो वही गलियाँ, वही चौराहे और वही नदी का घाट दिखाई देते हैं, लेकिन अपना असली गाँव कहीं नहीं मिलता। पहले चौपाल पर लोग बैठकर बातें करते थे, नीम के पेड़ से झूले बंधते थे और बूढ़ा अंधा बाबा उनके कदमों की आहट पहचान लेता था। वह गाँव की मिट्टी से जुड़े पैरों की आवाज सुनकर लोगों की पहचान कर लेता था, जो लेखक को गहराई से छू जाता था।
लेखक याद करते हैं कि पहले गाँव में गोरस बच्चों की भूख मिटाता था, आम की अमराई में कोयल की कूक गूँजती थी, नदी का पानी तरंगों से भर जाता था और महुआ गोरियों के इशारे पर गिरता था। अब वही नदी सूखकर रेत में बदल गई है, अमराई में कोयल की जगह कौए बैठे हैं और महुआ ठेकेदारों की ठोकर पर आँसुओं की तरह टपकता है। गाँव की जमीन पर अब दफ्तर और होटल बन रहे हैं, तेलघानी में तिल्ली और मूँगफली की जगह अनुदान के नोट डाले जा रहे हैं।
लेखक दुखी होकर पूछते हैं – आखिर ये कौन लोग हैं जो गाँव की असली पहचान और उसकी संस्कृति को छीनकर उसे खोखला बना रहे हैं? अब गाँव में पहले जैसी आत्मीयता, अपनापन और सादगी नहीं रही। अंत में वे कहते हैं कि उनका अपना गाँव कहीं नहीं मिल पा रहा है।
यह अध्याय हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़ में हम अपनी जड़ों और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं।
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