सालिमअली – सारांश
“सालिम अली” दिलीप मधुकर साल्वी द्वारा लिखित एक प्रेरक कहानी है, जो प्रसिद्ध पक्षी प्रेमी सालिम मुईजुद्दीन अब्दुल अली के जीवन और उनके पक्षी संरक्षण के योगदान को दर्शाती है। दस साल का बालक सालिम एक घायल गौरैया जैसी चिड़िया को देखकर आश्चर्यचकित होता है, क्योंकि उसके गले पर पीला धब्बा था। वह अपने चाचा अमीरुद्दीन के साथ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी जाता है, जहाँ सचिव डब्लू. एस. मिलार्ड उसे बताते हैं कि यह नर बया पक्षी है, जो वर्षा ऋतु में अपने पीले धब्बे से पहचाना जाता है। मिलार्ड उसे विभिन्न पक्षियों से भरे दराज दिखाते हैं, जिससे सालिम को पक्षियों की विविधता का पता चलता है। वह उत्साह से पक्षियों के बारे में सीखने लगता है, जैसे उन्हें कैसे पहचानें और मरे हुए पक्षियों को कैसे सुरक्षित रखें। सालिम के पास कॉलेज की डिग्री नहीं थी; वे बीजगणित से डरकर पढ़ाई छोड़ देते हैं और बर्मा में भाई की खदान में काम करने जाते हैं, पर वहाँ भी पक्षियों की खोज में लगे रहते हैं। भारत लौटकर वे प्राणिशास्त्र का कोर्स करते हैं और सोसाइटी में गार्ड बनते हैं, लेकिन जर्मनी से प्रशिक्षण लेकर लौटने पर उनकी नौकरी चली जाती है। अपनी पत्नी की आय के सहारे वे किहीम में एक शांत घर में रहते हैं, जहाँ बया पक्षियों की बस्ती देखकर तीन-चार महीने तक उनका अध्ययन करते हैं। 1930 में उनके इस अध्ययन के प्रकाशन से उन्हें पक्षीविज्ञान में ख्याति मिलती है। सालिम अपने प्रेक्षणों को बार-बार जाँचते थे, जिससे उनकी राय आधिकारिक मानी जाती थी। उनकी फिन बया पक्षी की खोज, जिसे 100 साल से विलुप्त माना जाता था, और रैकेट टेल्ड ड्रोगों के प्रेक्षण ने उनकी विशेषता दिखाई। 1941 में उन्होंने “बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स” लिखी, जिसमें पक्षियों के रोचक वर्णन और चित्र थे। 1948 में एस. डिलन रिप्ले के साथ “हैंडबुक ऑफ द बर्ड्स ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान” लिखी, जिसमें भारत और पाकिस्तान के सभी पक्षियों की जानकारी थी। 1987 में उनकी मृत्यु तक वे पक्षी संरक्षण के लिए काम करते रहे और उन्हें जे. पॉल वाइल्ड लाइफ कंजरवेशन पुरस्कार सहित कई सम्मान मिले। यह कहानी उनकी जिज्ञासा, संकल्प और पक्षी प्रेम की प्रेरणा देती है।
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