गणितज्ञ, ज्योतिषी आर्यभट्ट (सारांश)
पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था। यहाँ पास ही नालन्दा विश्वविद्यालय स्थित था और गंगा, सोन तथा गंडक नदियों का संगम होता है। पाटलिपुत्र से दूर टीले पर एक आश्रम था, जहाँ ज्योतिषी और विद्यार्थी एकत्र होते थे। यह आश्रम वास्तव में एक वेधशाला थी, जहाँ ताँबे, पीतल और लकड़ी के यन्त्र रखे थे। इन यन्त्रों की सहायता से ग्रहणों की गणना की जाती और उनकी सत्यता परखी जाती।
आर्यभट्ट महान गणितज्ञ और ज्योतिषी थे। उन्होंने पुरानी गलत धारणाओं को नहीं माना और निडर होकर अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, बल्कि यह अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। आकाश का तारामंडल स्थिर है और इसी कारण हमें वह पूर्व से पश्चिम की ओर चलता दिखाई देता है। उन्होंने ग्रहण की भी वैज्ञानिक व्याख्या दी। उनके अनुसार चन्द्रग्रहण पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ने से लगता है, जबकि सूर्यग्रहण तब होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच आकर सूर्य को ढक लेता है। राहु द्वारा ग्रहण निगलने की धारणा उन्होंने असत्य और कपोलकल्पित बताई।
आर्यभट्ट ने संस्कृत भाषा में ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जो चार भागों—दशगीतिका, गणित, कालक्रिया और गोल—में विभाजित है। इसकी खोज 1864 ई. में डॉ. भाऊ दाजी ने की थी। भारत की देन दशमलव स्थानमान पद्धति ने भी गणित को नई दिशा दी। आर्यभट्ट ने अरब तक की संख्याएँ लिखकर यह सिद्ध किया कि हर स्थान पिछले से दस गुना होता है।
आर्यभट्ट साहसी और तेज बुद्धि वैज्ञानिक थे। उन्होंने गणित और ज्योतिष को नई स्वस्थ परम्परा दी। उनकी निडरता, वैज्ञानिक सोच और खोजों के कारण उन्हें प्राचीन भारतीय विज्ञान का सबसे चमकीला सितारा कहा जाता है।
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