1. कवि रहीम – परिचय
- रहीम का जन्म सन् 1556 में हुआ।
- इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था।
- वे अरबी, फारसी, संस्कृत और हिन्दी के ज्ञाता थे।
- वे अकबर के नवरत्नों में से एक थे।
- रहीम मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं।
- उनका स्वभाव बहुत कोमल था, इसलिए उन्हें अपने समय का कर्ण कहा गया है।
- इनके काव्य का मुख्य विषय –श्रृंगार, नीति और भक्ति
- उनके दोहे आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं क्योंकि वे सहज, सरल और बोधगम्य हैं।
- रहीम की भाषा – अवधी और ब्रजभाषा
- भाषा में प्रसादगुण की अधिकता है।
- छंद – दोहा, सोरठा, बरवै
- अलंकार – उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा
- मृत्यु – सन् 1626
रहीम की प्रमुख कृतियाँ
- रहीम सतसई
- श्रृंगार सतसई
- मदनाष्टक
- रास पंचाध्यायी
- रहीम रत्नावली
- बरवै
- भाषिक भेद-वर्णन→ ये सभी ‘रहीम ग्रंथावली’ में संगृहीत हैं।
हिंदी साहित्य में स्थान
- हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नीतिकारों में रहीम का स्थान सर्वोपरि है।
- उन्होंने हिन्दू संस्कृति को अपनाते हुए कृष्ण-काव्य परंपरा में उत्कृष्ट योगदान दिया।
2. नीति-धारा (PDF से मुख्य सिद्धांत)
नीति का अर्थ है-जीवन को सही दिशा देने वाली शिक्षा।
- जीवन एक कला है।
- नीति व्यक्ति और समाज के समन्वय को सुदृढ़ बनाती है।
- नीति से व्यक्ति का चरित्र परिष्कृत होता है।
- नीति कथन जीवन की कठिनाइयों को सहजता से हल करने में सहायक होते हैं।
- व्यावहारिक जीवन के प्रश्नों को सुलझाने में नीति के दोहे उपयोगी और मार्गदर्शक बनते हैं।
- इसलिए कई नीति-वचन समाज में मुहावरों और लोकोक्तियों की तरह प्रचलित हैं।
- भक्तिकाल में नीति-काव्य का विशेष महत्व था।
- रहीम, गिरधर, वृन्द आदि नीति-काव्य के श्रेष्ठ कवि रहे।
काव्य का एक उद्देश्य –पाठक को शिक्षा देना, जिसे नीति-काव्य सर्वश्रेष्ठ रूप में पूरा करता है।
3. रहीम के दोहों का सार (PDF के अनुसार)
1. अमर बेलि बिनु मूल की…
- अमरबेल बिना जड़ के भी पनपती है।
- मनुष्य भी प्रभु को छोड़ कर व्यर्थ भटकता है।
2. रहिमन चुप हौं बैठिये…
- कठिन समय में चुप रहना ही उचित है।
- अच्छे दिन आने पर कार्य अपने-आप बन जाते हैं।
3. खीरा सिर तै काटिये…
- कड़वे बोलने वालों को कठोर दंड उचित है।
4. बिगरी बात बनै नहीं…
- बिगड़ी हुई बात लाख प्रयास से नहीं सँवरती।
- जैसे फटा दूध फिर मथने पर भी मक्खन नहीं देता।
5. काज परै कछु और है…
- कार्य बनना और बिगड़ना मनुष्य के सोच से अलग होता है।
6. एकै साथै सब सधै…
- मूल को सींचने से ही वृक्ष फल-फूल से भर जाता है।
- मूलभूत सुधार से सब कार्य सफल होते हैं।
7. कदली, सीप, भुजंग-मुख…
- संगति का प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण है।
- साथ जैसा होगा, फल भी वैसा ही मिलेगा।
8. कहि रहीम सम्पत्ति सगै…
- संकट में ही सच्चे मित्र की पहचान होती है।
9. रहिमन धागा प्रेम का…
- प्रेम का बंधन नाजुक धागे की तरह है।
- टूटने पर उसमें गाँठ पड़ जाती है।
10. धनि रहीम जल पंक को…
- लघु व्यक्तियों का पानी भी भला है-
- समुद्र बड़ा होते हुए भी प्यास नहीं बुझा सकता।
4. कवि वृन्द (वृन्दावन) – परिचय
- पूरा नाम – वृन्दावन
- जन्म – सन् 1643, स्थान – मेड़ता
- 10 वर्ष की आयु में काशी जाकर शिक्षा प्राप्त की -व्याकरण, साहित्य, वेदांत, गणित, दर्शन आदि।
- काव्य-सृजन आरंभ किया।
- मृत्यु – सन् 1723, किशनगढ़
प्रमुख रचनाएँ
- बारहमासा
- नयन पचीसी
- भाव पंचशिखा
- पवन पचीसी
- यमक सतसई
- वृन्द सतसई
वृन्द के काव्य की विशेषताएँ
- काव्य में नीति, भक्ति और श्रृंगार का सुंदर वर्णन।
- दोहा इनका प्रिय छंद।
- भाषा – ब्रजभाषा
- रचनाओं में लोक-जीवन, लोक-दर्शन और अनुभवों का सुंदर चित्रण।
- इनकी सहज और सरस शैली के कारण इनके दोहे लोकोक्ति के समान प्रसिद्ध हुए।
- रीतिकाल के प्रमुख कवियों में इनका विशेष स्थान है।
5. वृन्द के दोहे – सरल सार
1. उद्यम कबहुँ न छाँड़िये…
- मेहनत कभी मत छोड़ो।
- जैसे बादल देखकर घड़ा नहीं फोड़ा जाता।
2. होनहार बिरवान के…
- होनहार व्यक्ति में अच्छे लक्षण प्रारंभ से ही दिखाई देते हैं।
3. तेते पाँव पसारिये…
- जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाने चाहिए।
- अर्थात् अपनी सीमा में ही रहना चाहिए।
4. उत्तम विद्या लीजिये…
- उत्तम ज्ञान नीच स्थान पर भी मिल जाए तो लेना चाहिए।
5. मनभावन के मिलन के…
- घनघोर बादलों की आवाज़ पर मोर नाच उठता है-यह मिलन-आनंद का वर्णन है।
6. करत-करत अभ्यास…
- लगातार अभ्यास से मूर्ख भी बुद्धिमान बन सकता है।
7. अति परिचै ते होत हैं…
- अत्यधिक परिचय से अनादर बढ़ता है।
8. भले बुरे सब एक से…
- बोलने से ही भले-बुरे की पहचान होती है।
- बसंत में कौआ और कोयल की पहचान स्पष्ट हो जाती है।
9. सबै सहायक सबल के…
- सब लोग शक्तिशाली की सहायता करते हैं,पर कमजोर की मदद कोई नहीं करता।
10. अति हठ मत कर…
- ज़रूरत से ज़्यादा जिद चीज़ों को और कठिन बना देती है।
6. इस अध्याय के मुख्य साहित्यिक बिंदु
भाषा
- ब्रजभाषा
- सरल, सहज और प्रभावी
छंद
- दोहा, सोरठा, बरवै
अलंकार
- उपमा
- रूपक
- उत्प्रेक्षा
- अनुप्रास
रस
- श्रृंगार
- नीति
- भक्ति

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