1. पाठ का परिचय
यह पाठ महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता में दिए गए कर्म-सिद्धांत पर आधारित है।अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बताए गए कर्तव्य, कर्म की कुशलता, निष्काम कर्म, समत्व, और कर्म-शुद्धि के सिद्धांतों को सरल तरीके से समझाया गया है।डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी ने कर्म करते समय अपनाई जाने वाली सावधानियों और सही दृष्टिकोण का विस्तृत वर्णन किया है।
2. महाभारत और गीता का प्रसंग
- महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने की।
- गीता महाभारत का ही अंश है।
- युद्ध से पहले अर्जुन विषादग्रस्त थे।
- श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म, कर्तव्य और निष्काम भाव का संदेश दिया।
- इस पाठ में वही कर्म-ज्ञान सरल रूप में बताया गया है।
3. जीव-समुदाय और प्राकृतिक नियम
- प्रकृति में वृक्ष, वनस्पति, जीव-जंतु और मानव – सभी शामिल हैं।
- इनके संचालन के नियम नैसर्गिक नियम कहलाते हैं।
- मनुष्य ने अपने अनुभव से जो नियम बनाए, वे कर्तव्य या कर्म कहलाए।
- कर्म civilized समाज और सम्पूर्ण सृष्टि की स्थिरता के लिए आवश्यक हैं।
4. कर्म-सिद्धांत (गीता के अनुसार)
(1) कर्म के पाँच कारण
- अधिष्ठान (शरीर / आधार)
- कर्ता (कर्म करने वाला)
- करण (इन्द्रियाँ)
- चेष्टाएँ (प्रयत्न)
- दैव (ऊपरी शक्ति / ईश्वरीय तत्व)
➡ इसलिए केवल “मैं ही कर्ता हूँ”-ऐसा सोचना अज्ञान है।➡ मनुष्य केवल निमित्त (माध्यम) है।
(2) राग-द्वेष और मनुष्य का लक्ष्य
- मनुष्य के सभी कार्य सुख की प्राप्ति और दुःख हटाने के लिए होते हैं।
- हानिकर कार्य छोड़ना और लाभकारी कार्य करना स्वाभाविक है।
(3) निष्काम कर्म – फल की चिंता न करना
- श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करते समय:
- सिद्धि-असिद्धि,
- लाभ-हानि,
- सुख-दुःख– इन सबमें समान भाव रखो।
- कर्म करते समय फल का विचार करने से-→ समय नष्ट होता है→ लक्ष्य से भटकाव होता है
➡ यही निष्काम कर्म और समत्व योग है।
(4) कर्म-शुद्धि
- कर्म तभी शुद्ध होता है जब-
- वासनाएँ
- आसक्ति- मन से दूर हों।
- कर्मफल को ईश्वर को अर्पित कर देने से मनुष्य अनासक्त हो जाता है और उसे परम लक्ष्य प्राप्त होता है।
(5) कर्म त्याग संभव नहीं
- मनुष्य अपने स्वभावजन्य कर्म से बँधा है।
- चाहे मन हो या न हो – उसे कर्म करना ही पड़ता है।
- इसलिए अपने स्वधर्म (सत्कर्म) को ही करना चाहिए।
(6) श्रेष्ठ पुरुष का आचरण
- श्रेष्ठ व्यक्ति का चरित्र समाज के लिए प्रमाण बनता है।
- उनके कार्यों का अनुसरण लोग करते हैं।
- इसलिए प्रमुख व्यक्ति को सावधान रहकर कर्म करना चाहिए।
5. कर्म-कौशल के मुख्य तत्व (अत्यंत महत्वपूर्ण)
1. अनुकूल-प्रतिकूलता में समान भाव
2. फल की चिंता छोड़कर कर्म करना
3. वासनाओं, आसक्तियों का त्याग
4. कर्म में पूर्ण श्रद्धा व समर्पण
5. अपने कर्म क्षेत्र में स्थिर रहना
6. दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करना
7. कर्मफल को ईश्वर को अर्पित करना
8. समत्व बुद्धि विकसित करना
6. पाठ का सारांश
प्रकृति विविध जीव-समुदायों से भरी है और सभी के संचालन के अपने-अपने नियम हैं।
मनुष्य ने जिन्हें सुधारा, विकसित किया वे कर्तव्य/कर्म कहलाए।गीता में कर्म का गहरा और विश्वविख्यात सिद्धांत बताया गया है।
कर्म के पाँच कारण हैं, इसलिए मनुष्य एकमात्र कर्ता नहीं।
फल की चिंता मनुष्य को कर्म से विचलित कर देती है; इसलिए निष्काम कर्म श्रेष्ठ है।
जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आते रहते हैं-इनमें समान रहना चाहिए।
मनुष्य अपने स्वभाव के कारण कर्म करने को बाध्य है, इसलिए उसे अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए।
श्रेष्ठ व्यक्ति का आचरण समाज के लिए अनुकरणीय होता है।
अंत में कहा गया है कि सही भावना से किया गया कर्म मनुष्य को आत्म-संतुष्टि और परम-लक्ष्य प्रदान करता है।
7. इस अध्याय से मिलने वाली सीख
- कर्म से भागना नहीं चाहिए।
- फल की चिंता छोड़कर कर्म करने से मन शुद्ध होता है।
- श्रेष्ठ आचरण समाज में मार्गदर्शक बनता है।
- बिना आसक्ति के किया गया कर्म ही उच्चतम फल देता है।
- सफलता-विफलता में समान भाव रखना चाहिए।

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